Tuesday, January 13

पता

हाँ, पता नहीं की आज एक प्रगाढ़ इच्छा प्रकट हो रही है मन में। प्रगाढ़ इतनी की बस। अब बज रहे हैं रात के। कुछ ही घंटों में सबेरा होगा, एक नया दिन शुरू होगा। सब लोग उठेंगे, नाश्ता वगैरा करकर काम धाम करेंगे, कमाई करेंगे, अपणोंके साथ समय बिताएंगे और फिर शांत चित्त सो भी जायेंगे, फिर एक नई शुरुआत के लिए। पर मेरा ऐसा कहाँ? मैं उठता हुं तभी जब के सोता हुं। पर मैं सोता हुं कहाँ? देखिये ना कल की ही बात है, इतवार की जी। मैंने सोचा के दारू नही पियूंगा। कम्पुटर पर काम करता रहा। दोपहर हो गयी जब, उठा, और चल पडा मैखाने की दिशा में। वहां एक बियर पि ली और खरीद ली एक ओल्ड मंक की बोतल। सोचा रात में पीयूँगा एखाद पैग और सो जाऊंगा, पर जैसेही तीन बजे, मैं हो गया शुरू। दे दना दन!! तेरी तो ... मतलब, एकदमसे शराबी की भांति। अब मैं शराबी थोडेही हुं जी? नही। पर पता नहीं की शराबी की तरह क्युं ऐसे व्यवहार करता हुं? क्यों?हर एक घटना के पीछे होता है एक कारण। हाँ, कारण जी। मेरी नींद चली जानेके पीछे भी होगा कोई कारण। है ? होगा, कोई तो कारण होगा निश्चय! मुझे क्या मालूम क्या कारण भई? मैं तो सिर्फ़ जागता हुं। रात की शान्ति में अपने अंदर के कोलाहल को दबानेकी चेष्टा में। अब कोलाहल तो होगा ही। होगा के नही? इस कोलाहल को लेकर एक याद आया। वोह जो गाना? राज कपुरजी और वैजयंतीमाला? नाम भूल गया उस पिच्चर का, पर गाना याद है. वही, बोल राधा बोल संगम होगा के नही वाला? कोलाहल! था ? बिल्कुल कोलाहल ही था। राजसाब अपने मन की गहरी ठेच को दबोच डालनेकी चेष्टा में और वो वैजयंतीमाला अपने मन की ठेंच को। और उन दोनों के अपने अपने कोलाहलोंकी टक्कर से प्राप्त हुआ औत एक तीसरा कोलाहल। और उन सभी कोलाह्लोंको एक हल्कापन देता है वो गाना। ठीक खा के नही? है ने? अब मुझे क्या पता? ठीक हो या हो, कोलाहल जरुर है। एकदम हंड्रेड परसैंट जी.

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